Saturday, 13 September 2014

दुआ

                                                                          दुआ


इंसान को मुश्किलात , ग़मों और सदमों से निजात पाने के लिए दुआ करते रहना चाहिए।
क्योंकि खुशहाल ज़िन्दगी के सारे ख़ज़ानों की चाबीयां अल्लाह ही के पास है और मुसीबतों व परेशानियों से निजात सिर्फ वही दे सकता है।  बन्दे के दुआ के लिए उठे हाथों को खाली लौटाना उसे अच्छा नहीं लगता।  आप सल्ललाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है " बेशक अल्लाह हया करने वाला और बहुत मेहरबान है।  जब कोई उसके आगे हाथ फैलाता है थो उसे शर्म आती है की वह उन्हें खली लौटा दे। " (अबु दाऊद 1488 इब्ने माज़ा 3865  सही)
और यह की "कोई मुसलमान जब कोई ऐसी दुआ करता है जिसमे गुनाह या क़त्अः रहमी नहीं होती तो अल्लाह उसे तीन में से एक चीज़ जरूर देता है। "
1 उसकी दुआ क़ुबूल जल्दी होती है।
2 या उस दुआ को ज़खीरा ए आख़िरत बना देता है।
3 या उस जैसी कोई मुसीबत उस से दूर कर देता है।
(सही-अदब अल - मुफ़रद लीलबानी - सफा 264 , तिर्मिज़ी )

दुआ क़ुबूलियत के औकात में करना बेहत्तर है।  जैसे सज़दे की हालत में , अज़ान और अक़ामत के बीच में, जुमे के दिन अस्र के बाद से मग़रिब तक या रात के आखिरी हिस्से में।  जब अल्लाह आसमाने दुनिया पर नाज़िल होकर कहता है "क्या कोई है जो मुझसे दुआ मांगे तो मैं उसकी दुआ क़ुबूल करू ?
क्या कोई है जो मुझसे सवाल करे तो मैं उसका सवाल पूरा करू ? और क्या कोई है जो अपने गुनाहों पर मुझसे माफ़ी मांगे तो मैं उसे माफ़ कर दू।
(मुस्लिम - 758 )

No comments: