Thursday, 21 April 2016

हज़रत सलमान फ़ारसी र. अ. का आगे का वाक़या 
यह एक ऐसे बुजुर्ग शख्स की दास्ताँ है जो हकीकि मंजिल को हासिल करने के लिए हमेशा कोशिशजदा और अल्लाह की तलाश में लगता परेशां रहा हो।

कुछ दिन गुजरने के बाद लोगो ने एक दूसरे शख्स को अपना मजहबी रहनुमा चुन लिया।  मैंने उसकी खिदमत शुरू कर दी और उससे तालीम हासिल करने लगा।  मैंने देखा यह शख्स तो बहुत बड़ा इबादतगुजार दिन रात खुदा की याद में मसरूफ रहने वाला है।  उसके यह गुण देखकर मुझे उससे मुझे उससे बड़ी अक़ीदत व मुहब्बत हो गई।  मैं उसकी खिदमत में बहुत वक़्त रहा। जब उसकी मौत का वक़्त करीब आया तो मैं बहुत दुखी हुआ।  रोते हुए उसकी खिदमत में अर्ज़ किया , हज़रत अब मैं कहाँ जाऊ, मेरे लिए क्या हुक़्म है ? मैं किससे तालीम लूं ? उसने लड़खड़ाती हुई जुबान से कहा , बेटा मोसुल (ईराक़) में एक शख्स रहता है , जो हमारे मिशन पर कायम है , तुम उसके पास चले जाना।  जब यह मेरा मजहबी रहनुमा मर गया तो मैं कफ़न-दफ़न से निमटकर सीधा मोसुल रवाना हो गया और उस शख्स से मुलाक़ात की जिसके बारे में मुझे बताया गया था।  मैंने अपना परिचय कराने के बाद अर्ज़ किया, मुझे बताया फलां पादरी ने मरने से पहले वसीयत की थी कि मैं आपकी खिदमत में हाजिर होकर मजहबी तालीम हासिल करू, उन्होंने आपके बारे में मुझे यह भी बताया कि आप उनके मिशन पर कायम है।  वो मेरी बातो से मुतास्सिर हुआ और अपने पास रहने की उसने मुझे ख़ुशी-ख़ुशी इज़ाज़त दे दी।  मैंने उस पादरी को भी बहुत बबेहत्तर पाया।  यह भी पहले मजहबी रहनुमा की तरह ईश्वरवादी इंसान था।  लेकिन थोड़े ही समय बाद वो भी दुनिया से चल बसे।  मैंने उनसे आखरी समय में कंपकंपाते होंटो से अर्ज़ किया , हज़रत आप जानते है कि मैं किस चीज़ की तलाश में घर से से निकला हूँ ? क्यों मैंने ठाठ बाट की जिंदगी को छोड़ा है।  क्यों मैंने फूलों की सेज़ छोड़कर काँटों की वादी में कदम रखा है ? हुजूर अब मेरे लिए क्या हुक़्म है , मैं किधर जाऊं, कहाँ का रूख करूँ।  किसे अपना मजहबी रहनुमा बनाउ।  उसने मेरी मसल हालत को देखकर कंपकंपाते होंटो और लड़खड़ाती हुई जुबान से इरशाद फ़रमाया , बेटा नसीबन नामी बस्ती में फलां शख्स के पास चले जाओ , वो हमारे मिशन पर कायम है।  उसे मेरा सलाम कहना और बताना कि मैंने तुम्हे उसके पास भेजा है। 
जब उसे भी क़ब्र में उतार दिया गया तो मैं सीधा उस मजहबी रहनुमा के पास पहुंच गया तो बस्ती में रहता था।  मैंने अपना परिचय कराने के बाद अपने पहले मजहबी रहनुमा का सलाम पेश किया और यह पैगाम दिया की उन्होंने आपकी खिदमत में भेजा है।  मैं मजहबी तालीम हासिल करने के इच्छुक हूँ और कामिल उस्ताद की तलाश में आपके पास पंहुचा हूँ। 
उन मुझे अपने पास रहने की इज़ाज़त दे दी , यह भी बहुत मुत्तक़ी व खुदा तरस इंसान था। लेकिन अल्लाह का करना ऐसा हुआ की उसे भी मौत ने ज्यादा मुहलत न दी। जब उसकी मौत का वक़्त करीब आया , तो मैंने दुख की हालत में उनके सिरहाने बैठकर कहा, हज़रत आप मेरी तमन्ना को जानते है।  अब मेरे लिए क्या हुक़्म है? अब कौन मेरे घावों पर मरहम लगाएगा ? उसने मेरी हालत देखकर बड़े ही मुश्फिकाना अंदाज़ में कहा, बेटा अमुरियह बस्ती में फलाँ शख्स के पास चले जाओ।  वह हमारे मिशन पर कायम है।  कफ़न दफ़न से निमतकर मैं उससे जा मिला , अपना परिचय कराने के बाद पहले मजहबी रहनुमा का उसे सन्देश दिया तो उसने मुझे अपने पास रहने की इज़ाज़त दे दी।  तालीम के साथ साथ यहाँ मुझे कारोबार के मौके भी हाथ आये।  अक्रोबर में बहुत बरकत हुई जिससे बहित से गाये और बकरिया मेरे पास जमा हो गई। 
लेकिन कुदरत का करना ऐसा हुआ कि उन्हें भी ज्यादा मुहलत न मिली।  जब मौत का वक़्त करीब आया तो मैंने उनसे अर्ज़ किया,हज़रत अब मेरे लिए क्या हुक़्म है ? उसने मुझे यह बात बताई , कहने लगा अल्लाह की कसम , धरती पर अब कोई ऐसी व्यक्ति बाकी नहीं रहा जो हमारे मिशन पर कायम हो।  लेकिन अरब में एक नबी जाहिर होने वाला है जो दीने इब्राहिमी लेकर आएगा।  फिर वो अपने वतन से एक इलाके की तरफ हिजरत करेगा , जहां काले खुश्क पत्थरो के बीच खजूरों के बागात होंगे।  उसकी कुछ एक खुली निशानिया बी होंगी।  वो तोहफे तो खा लगा लेकिन सदक़ा की चीज़ नहीं खायेगा और उसके कंधो के बीच मुहर नुबुव्वत होगी। अगर आप वहा जाने की ताकत रखते हो तो मेरी नसीहत है जरूर जाए और उनसे जरूर मिले।  इस मजहबी रहनुमा की वफ़ात के बाद मैं बहुत समय तक अमुरियह बस्ती में रहा।  एक बार क़बीला बनु कल्ब के अरब ताजिर यहाँ से गुजरे।  मैंने उनसे कहा अगर तुम मुझे भी अपने साथ ले जाओ तो मैं इसके बदले में ये सब गाये और बकरिया तुम्हे दे दूंगा।  उन्होंने कहा, हमें सौदा मंजूर है। 
मैंने सारा माल उनके हवाले कर दिया और उन्होंने मुझे अपने साथ सवार कर लिया।  जब हम वादी कुरा में पहुंचे तो उन्होंने मेरे साथ धोखा किया और मुझे एक यहूदी के हाथ बेच दिया।  मुझे मजबूरन उसकी गुलामी में रहना पड़ा।  लेकिन कुछ समय के बाद बनु क़ुरैज़ा में से उसका चचा जाद भाई मिलने के लिए आया और उसने मुझे खरीद लिया और अपने साथ यसरीब ले गया।  वहा मैंने खजूरों के वे बागात देखे जो अमुरियह के पादरी ने मुझे बताए थे।  मैंने दिल में सोच लिया कि यही मेरी आखिरी मंजिल है।  मैं यहाँ गुलामी के दिन गुजारने लगा।  दिन भर उनका काम करता और ज़िंदा रहने के लिए मामूली सा दो समय का खाना मिल जाता।  यूँ ही मेरी ज़िन्दगी के दिन गुजारने लगे। उन दिनों नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हिजरत करके यसरिब पहुँच गए।  मैं उस समय खजूर की चोटी पर काम में मसरूफ था।  मेरा आका नीचे खजूर के पेड़ के पास बैठा हुआ था।  उसका चचाजाद भाई दौड़ता हुआ आया, सांस फुला हुआ था, घबराहट के आलम में कहने लगा, खुदा बनु कैला को तबाह करे वह आज कुबा में उस शख्स के स्वागत के लिए जा रहे है, जो मक्का से हिजरत करके आ रहा है और उसका दावा है कि मैं नबी हूँ।  मैंने जब खजूर की चोटी पर उसकी बात सुनी तो मेरे बदन में कंपकंपी तारी हो गई।  मुझे खतरा पैदा हुआ कही मैं नीचे ही न गिर जाऊं।  मैं जल्दी से नीचे उतरा और बदहवासी में आने वाले शख्स से कहा , खुदा के लिए आप मुझे दोबारा बताए क्या खबर है ? मेरी यह हालत देखकर मेरे आका को गुस्सा आया और उसने मुझे ताबड़तोड़ मुक्के रसीद करने शुरू कर दिए और बड़बड़ाया कि तुझे उससे क्या , चल तू अपना काम कर।  जब शाम का समय हुआ तो मैंने खजूरों का थैला बगल में लिया और तलाश करते करते वहा पहुँच गया जहां रसूल ए अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मौजूद थे।  मैं आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खिदमत में हाजिर हुआ और अर्ज़ किया , मुझे यह पता चला है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक भले और रहमदिल इंसान है और आप के साथ कुछ मुसाफिर साथी भी हा , यह मेरे पास सदक़े की खजूरे है।  यह मैं आपकी खिदमत में पेश करने के लिए हाजिर हुआ हूँ।  आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने वे खजूरे ली और अपने साथियो से इरशाद फ़रमाया ,
ये खजूरे खा लो और अपना हाथ रोक लिया।  आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसमे से कोई खजूर न खाई।  मैंने अपने दिल में कहा , यह एक निशानी पूरी हुई।  फिर मैं वापस आ गया।  दूसरे दिन और खजूरे ली और आपके पास हाजिर हो गया और अर्ज़ किया , चूँकि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) सदक़ा नहीं खाते इसलिए यह बतौर तोहफा कुछ खजूरे आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में पेश करता हूँ।  आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तोहफा क़ुबूल किया, खुद भी ये खजूरे खाई और अपने सहाबा र. अ. को भी खिलाई।  मैंने दिल में सोचा यह दूसरी निशानी भी पूरी हुई।  फिर मैं तीसरी बार रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खिदमत में हाजिर हुआ।  इस बार आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जन्नतुल बक़ीअ में अपने सहाबी रजि. की तदफ़ीन के सिलसिले में तशरीफ़ फर्म रहे थे।  उस समय आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दो चादरें पहने हुई थी।  मैंने सलाम अर्ज़ किया।  मैं आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहरे नुबुव्वत देखने की कोशिश में था जो था अमुरियह के पादरी ने मुझे बताई थी।  नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जब मुझे देखा तो आप भांप गए कि मैं क्या चाहता हूँ। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी चादर मुबारक कंधो से नीचे सरका दी।  मैंने मुहर ए नुबुव्वत देखि तो पहचान गया। मैं उसे चूमने के लिए झुका और बेतहाशा रोना शुरू कर दिया।  रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जब मेरी यह हालत देखि तो प्यार से मुझे थपकी दी और अपने पास बैठाकर फ़रमाया, क्या बात है ? क्यों रोते हो ? मैंने अपनी पूरी दर्द भरी दास्ताँ आपको सुनाई और आपने उसे बड़ी दिलचस्पी से सुना और मुझे फ़रमाया कि इन साथियो को भी यह दास्ताँ सुनाए।  मैंने उन्हें अपनी तमाम दास्ताँ सुनाई।  वे सुनकर बहुत खुश हुए कि मैंने बड़ी मेहनत के बाद अपनी असली मंजिल को पा लिया है। 
सलाम हो हज़रत सलमान फ़ारसी रजि. पर जिस दिन वो हक़ की तलाश के लिए घर से निकले। 
सलाम हो हज़रत सलमान फ़ारसी रजि. पर जिस दिन उन्होंने हक़ को पहचान लिया और पक्के यकीन के साथ ईमान ले आये। 
सलाम हो हज़रत सलमान फ़ारसी रजि. जिस दिन आप अल्लाह को प्यारे हुए और जिस दिन उन्हें ज़िंदा उठाया जायेगा। 
हज़रत सलमान फ़ारसी रजि. की ज़िन्दगी के हालात तफ्सील से मालूम करने के लिए इन किताबो का मुताला करे 
(1) अल असाबह,3/112-114  (2) अल इस्तिआब 2/556-558 (3) अलजिरह वत्तादील, 2/296-297 (4) उसुदुल गाबा, 2/328-332 (5) तहजीबुत्तहजीब, 1/315 (6) तकरिबुत्तहजीब, 4/137-147 (7) अल जमा बैन रिजालुस्सहीहीन, 1/193 (8) तबकतुसशोरोनी, 30/31 (9) सिफतुस्सफवा, 1/210-225 (10) शजरातुज्जहब, 1/४४ (11) तारीखुल इस्लाम लिजजहबि, 2/108-163 (12) सैयर आलामुन्नबला, 1/362-400 
पोस्ट by #सद्दाम_हुसैन_अन्सारी  

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