Tuesday, 29 March 2016

राजीव शर्मा कोलसिया
अरब में अंधकार के बीच कुछ लोगों को आशा की एक ज्योति दिखाई देती थी। ये प्राचीन किताबों के जानकार थे। वे लोगों से चर्चा करते कि तौरात व इंजील में एक नबी का जिक्र आया है। उसकी प्रतीक्षा करो। उसके स्वागत में बुरे रिवाज बंद करो, खोट भरे कामों से दूर रहो।

एक रब की इबादत करो। खर्चे के डर से बच्चियों को मौत के घाट मत उतारो। एक दूसरे पर अत्याचार करने से खुद को रोको। ब्याज-शराब जैसी बुराइयों से बचो। अगर बुराइयों से बचकर सीधे रास्ते पर चलोगे तो इस लोक में सफल रहोगे और आखिरत में भी मालामाल हो जाओगे। अगर अब भी न सुधरे तो विनाश के सागर में गोते लगाते रहोगे।

कुरैश भला इन बातों को क्यों पसंद करते? वे तो दीन और रब की इबादत के नाम पर कई मनमानी विधियों का अनुसरण कर रहे थे, जो समझ से परे थीं। अरब के अधिकांश लोग हजरत इबराहीम (अलैहि.) के दीन से बेखबर हो चुके थे। इस गुमराही में वे बहुत आगे निकल चुके थे।

एक रब को भूलकर कई-कई काल्पनिक खुदाओं की इबादत करते। कोई भी अपनी मर्जी से दीन के तौर-तरीकों में बदलाव कर देता, उसके नियमों में मिलावट कर देता। ये बदलाव इतने ज्यादा हो चुके थे कि असल चीज बहुत पीछे छुट गई।

लोग एक विचित्र रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे। शराब जिंदगी का दूसरा नाम बन गई थी। लोग खुद शराब पीते और अपने खुदाओं को भी चढ़ाते। ऐसा था अरब भूमि का दृश्य।

कुछ लोगों को इसकी सत्यता का आभास हुआ। उन्होंने इस उलटी रीत का खंडन किया और कहा, ऐसे कामों से तौबा कर लो।

यह बात कुरैश को अच्छी नहीं लगी कि कोई उनके दीन में गलतियां निकाले। वे उन्हीं में खुश थे। जिसने भी नबी के आने, बुराइयों से तौबा करने की बात कही, उसका जीना मुश्किल हो गया। ऐसे लोगों के हिस्से में आईं ढेर सारी धमकियां। विरोधियों ने कठोर वचन सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जमकर खिल्ली उड़ाई गई। इसलिए इबराहीम (अलैहि.) के दीन पर चलने वाले गिनती के रह गए।

उस वक्त कितने लोगों को सही-सही मालूम रहा होगा कि वह नबी आज उन्हीं के बीच है। सत्य के मार्ग का वह यात्री निरंतर उनकी ओर चला आ रहा है!

मक्का से छह मील की दूरी पर एक पहाड़ है, जिसका नाम हिरा है। इस पहाड़ में एक गुफा है। इसे गारे-हिरा कहा जाता है। मुहम्मद (सल्ल.) को यह जगह बहुत अच्छी लगती थी। आप (सल्ल.) शांतिप्रिय थे, एकांत को पसंद करते थे।

दुनिया धोखे के तमाशे में डूबी थी, पर आपको आत्मावलोकन में ही आनंद आता था। इसलिए आप (सल्ल.) गारे-हिरा की ओर चले जाते, वहीं रुकते, रहते। सत्य तलाशने की जिज्ञासा बढ़ती जाती थी। सोचते कि ज्ञान का ऐसा कोश मिल जाए जिससे जीवन का कल्याण हो।

गारे-हिरा का वातावरण बिल्कुल शांत था। यहां आप (सल्ल.) अपने विचारों के संसार में सत्य की झलक देखने की कोशिशों में रहते। और भोजन का क्या, कभी खुद घर जाकर कर लेते तो कभी घर से यहां भोजन आ जाता। जीवन की गहराई और मन पर मनन करने में आप (सल्ल.) तल्लीन हो जाते।

जहां दुनिया भले-बुरे का विचार त्याग कर धन का ढेर लगाने में उलझी थी, आप (सल्ल.) उस समय ऐसी दौलत ढूंढ रहे थे जो इस लोक में काम आए और परलोक में भी। ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो इस दुनिया को अपनी स्थाई जागीर समझ बैठे थे। मानो यह कभी हाथ से नहीं निकलेगी।

आप (सल्ल.) इसकी क्षणभंगुरता को अनुभव करते। यही थी आपकी जिंदगी। ऐसे थे आपके दिन-रात। यह था जीवन को देखने व समझने के लिए आपका नजरिया।

शेष बातें अगली किश्त में

- राजीव शर्मा -
गांव का गुरुकुल से

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