Monday, 28 March 2016

हजरत मुहम्मद (सल्ल.) को बच्चों से बहुत प्रेम था। गारे-हिरा या बाहर किसी काम से घर लौटने के बाद वे बच्चों के साथ बहुत प्यार से मिलते, उनसे बातें करते। बच्चे जब उनसे पूछते कि आप कहां थे, हम भी आपके साथ चलेंगे, तो फरमाते- अच्छा, तुम भी साथ चलना। 

ये खुशियों के दिन बहुत छोटे थे। मुहम्मद (सल्ल.) के बेटे कम उम्र में ही रब के पास चले गए। उनकी जिंदगी की डोर बहुत छोटी रही। मुहम्मद (सल्ल.) एवं उनकी पत्नी के जीवन में ये दुख के क्षण थे। ऐसे में दोनों ने धीरज से काम लिया।

आप (सल्ल.) बचपन से लेकर आज तक कई बार अपनों को खो चुके थे। पहले पिता, फिर मां, दादा और अब इन बच्चों की मौत का दुख। ये बहुत गहरे गम की घड़ियां थीं, जिनके लिए बहुत सहनशीलता चाहिए। अब आपकी खुशियां थीं बेटियां। उनके नाम हैं- जैनब, रुकय्या, उम्मे-कुलसूम और फातिमा।

अल्लाह ने आपको चार प्यारी बेटियां दी तो दो बच्चे और मिल गए। कौन थे वे खुशनसीब बच्चे? आगे पढ़िए...

एक बार बीबी खदीजा (रजि.) अपने भतीजे हुकैम-बिन-हिजाम से मिलने गईं। जब घर लौटीं तो अपने साथ एक गुलाम ले आईं। यह समझना जरूरी होगा कि उस समय गुलामी की प्रथा का चलन था और सिर्फ अरब में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में इसका चलन रहा है।

यह गुलाम एक लड़का था, बहुत प्यारा। आपने (सल्ल.) उसे देखा तो खदीजा (रजि.) से पूछा- यह लड़का कौन है?

उन्होंने बताया, मेरे भतीजे हुकैम शाम (सीरिया) से कुछ गुलाम लाए थे। उनमें से एक मुझे दे दिया।

लड़के को देखकर आपने (सल्ल.) फरमाया- इसके चेहरे पर शराफत की चमक दिखती है। बुद्धिमानी और समझदारी की निशानियां हैं।

खदीजा (रजि.) गुलाम लड़के का परिचय देने लगीं, यह बहुत प्यार से पला है। संयोगवश बनी-कैन के हाथ लग गया। उन्होंने इसे हिबाशा के बाजार में बेच दिया।

जब गुलाम को बेचा गया तो उसकी उम्र लगभग आठ साल रही होगी। आपने (सल्ल.) स्नेह भरी दृष्टि से बच्चे को देखा, प्यार से पूछा-

बेटे, तुम्हारा क्या नाम है?

गुलाम बच्चे ने कहा, मेरा नाम जैद है।

आपने (सल्ल.) फिर पूछा, तुम किस वंश से हो?

गुलाम ने उत्तर दिया, मेरे पिताजी का नाम हारिसा है। दादाजी का नाम शुरहबील है। परदादा का नाम कअब है। मेरी मां का नाम सौदा है। वे सालिबा की पुत्री हैं। उनका ताल्लुक तय कबीले से है।

आप (सल्ल.) बच्चे की सूरत देखकर उसकी समझदारी का सही अनुमान पहले ही लगा चुके थे। उसका परिचय सुनकर खुश हुए और खदीजा (रजि.) से पूछा-

क्या अब यह गुलाम मेरा नहीं है?

उन्होंने कहा, हां, क्यों नहीं! यह आप ही का है।

मुहम्मद (सल्ल.) ने उसी समय जैद को गुलामी के बंधनों से आजाद कर दिया। इतना ही नहीं, आपने उसे अपना बेटा बना लिया।

गुलामी की बेड़ियां किसे प्यारी होती हैं? किसी को नहीं। भारत से बेहतर इसे कौन समझ सकता है, क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत से आजादी के लिए हमारे देशवासियों ने लाखों बार कुर्बानी दी। तब कहीं जाकर हम आजादी का सवेरा देख सके। मुहम्मद (सल्ल.) के जमाने में तो गुलामी की प्रथा और भी ज्यादा भयानक थी। गुलामों के कोई अधिकार नहीं थे।

ऐसे में कोई व्यक्ति गुलाम से आत्मीयता का बर्ताव कर ले, मीठा बोल ले, यही बहुत बड़ी बात होती थी, परंतु इससे कहीं ज्यादा, जो गुलाम को आजाद कर दे, अपनी औलाद की जगह मानने लगे... उसे क्या कहना चाहिए? उसकी महानता का आकलन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

आपने (सल्ल.) जैद के परिजनों को उसकी कुशलता का समाचार देने एक आदमी भेजा, ताकि उन्हें चिंता न हो। जब उन्हें मालूम हुआ कि उनका बच्चा सही-सलामत है, तो वे उसे लेने मक्का रवाना हो गए।

जैद के पिता और चाचा मुहम्मद (सल्ल.) के घर आए, आपसे मुलाकात की और विनती करने लगे-

हमसे मुंहमांगी कीमत ले लीजिए, लेकिन कृपया बच्चे को छोड़ दीजिए।

आपने फरमाया- एक स्थिति में ऐसा हो सकता है।

पूछा- क्या?

फरमाया- मैं बच्चे को यहां बुलाता हूं और चयन का यह अधिकार उसी की खुशी पर छोड़ता हूं। यदि वह आपके साथ जाना चाहे, तो आप ले जाएं। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। इसके लिए मुझे कोई कीमत देने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह मेरे साथ रहना चाहे, तो मैं भी उसे नहीं छोड़ सकता, जो मुझे नहीं छोड़ता।

इसके बाद जैद को बुलाया गया। आपने उससे पूछा-

बेटे, ये दो अतिथि आए हैं। क्या तुम इन्हें पहचानते हो?

जैद ने उत्तर दिया- हां, ये मेरे पिताजी हैं, ये मेरे चाचा हैं।

आपने फरमाया- अब तुम्हारी इच्छा है। अगर चाहो तो इनके साथ अपने घर लौट जाओ। अगर तुम्हारा मन यहां रहने का हो तो मेरे साथ रह सकते हो।

यह सुनने के बाद जैद आपसे लिपट गया। वह अपने पिता-चाचा के साथ जाने के लिए तैयार ही नहीं था। बोला- नहीं, मैं तो आपके साथ रहना चाहता हूं।

जैद के मुंह से अपने सामने ऐसी बातें सुनकर उसके पिता को कुछ क्रोध आ गया। उन्होंने बेटे से पूछा, तू अपने माता-पिता और घर-द्वार छोड़कर यहां गुलामी के लिए क्यों राजी हो रहा है?

जैद ने कहा, नहीं पिताजी, इन्होंने मुझे गुलाम नहीं बनाया। इनमें ऐसे गुण हैं कि मैं इन्हें कभी नहीं छोड़ सकता।

आप (सल्ल.) जैद का हाथ पकड़कर कुरैश के पास ले गए और फरमाया-

आप सब गवाह रहें, यह मेरा बेटा है। यह मेरा वारिस होगा और मैं इसका।

यह दृश्य देखकर जैद के पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। कहां तो वे अपने बेटे की चिंता में मक्का चले आए थे कि न जाने उस पर कितने अत्याचार हो रहे होंगे! मगर कैसा था यह व्यक्ति (सल्ल.), जो बिन मांगे गुलाम को आजादी दे रहा था, उसे अपनी औलाद बना चुका था, लोगों को इस रिश्ते का गवाह बना रहा था! भला गुलाम से ऐसा बर्ताव भी कोई करता है?

लोग तो गुलामों से खूब-खूब काम करवाते हैं, जी भरकर खरी-खोटी सुनाते हैं, जब मन चाहा पीट भी लेते हैं। यह व्यक्ति कौन है जिसके दिल में गुलाम के लिए दया ही दया है! जो इतनी दया करना जानता हो वह बच्चे को उसके सगे पिता से भी ज्यादा खुश रखेगा। बच्चा मां के आंचल से ज्यादा इसकी गोद में महफूज रहेगा। जैद की भलाई के लिए इसे यहीं छोड़ना अच्छा है।

यह सोचकर हारिसा खुशी-खुशी अपने बेटे को मुहम्मद (सल्ल.) के पास छोड़कर चले गए। इतिहास में ऐसी घटनाएं दुर्लभ हैं जब मां-बाप इतनी प्रसन्नता से अपने जिगर का टुकड़ा किसी और को सौंपकर चले जाएं।

(नबी-सल्ल. की सभी संतानों का जिक्र अगली पोस्ट में भी कर रहा हूं।)

शेष बातें अगली किश्त में

- राजीव शर्मा -

गांव का गुरुकुल से

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