1 (मतभेद (इख्तिलाफ) रहमत नहीं होता।)
और ऐसी चार हदीसे जो उलेमा बयान करते है उनमे पहली अत्यंत जईफ दूसरी और तीसरी मौजूअ (जाली) और चौथी बातिल (असत्य) है।
अगर अल्लाह अपनी रहमत से लोगो के बीच मतभेद को ख़त्म न करता तो हर मतभेद रहमत कैसे हो सकता
है !
अल्लाह ताला तो क़ुरआन करीम में इरशाद फरमा रहा है कि :
"तुम सब अल्लाह तआला की रस्सी को मजबूती से पकड़ लो और मतभेद मत करो और अल्लाह के इस उपकार को याद करो कि तुम एक दूसरे के दुश्मन थे अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में मुहब्बत पैदा कर दी और तुम भाई-भाई बन गए। "
2 (इतने कट्टर मतभेद)
मुस्लिमो का सामान्य द्रष्टिकोण यह है कि चारो फ़िक़्ही मजहब हर दोष से मुक्त है और हर मुसलमान पर उनमे से किसी एक की तक़लीद वाज़िब है किसी व्यक्ति को भी अपना मजहब (मसलक) तब्दील नहीं करना चाहिए न दूसरे मसलक से फतवा लेना चाहिए।
3 जो व्यक्ति फ़िक़्ही मजाहिब के गलती व भूल से पाक होने का अक़ीदा नहीं रखता या इन मस्लको की ताकीद नहीं करता उसे आम तौर पर (और गलत तौर पर) बिदती करार दिया जाता है या फिर वहाबी या अहले हदीस (गैर मुक़ल्लिद) का नाम दिया जाता है।
4 सहाबा किराम या इमामो का जो मतभेद था वह हदीसे नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सही जईफ होने के साथ-साथ ख़त्म हो जाता था , लेकिन यह आगे के दौर में या अब्बासिया दौर में तनाव का रूप लेने लगा कुछ स्वतंत्र विचार वालो ने तब्दीली लाना चाही जिसमे ईमाम इब्ने तैमिया र. अ. और दीगर उलेमा है।
अंतिम समय में काबा में 4 मुसल्ले होते थे फिर शेख मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने काबा शरीफ में से मतभेद मिटाकर एक मुसल्ला क़ायम किया और उम्मते मुस्लिमा एक साथ नमाज़ पढ़ने लगी। और अहलुर्राय की जगह अस्हाबुल हदीस की सोच क़ायम की।
क़ुरआन व हदीस को तर्क करके उस वक़्त की जनता इमामो की तक़लीद करने लग गए। जबकि चारो इमामो (अबु हनीफा,शाफ़ई,मालिकी,हम्बली) का यही मजहब था कि हमसे भी भूल-चूक या गलती हो सकती है आप हमारी बातो को हमारी राय को एक तरफ रख दे अगर वो क़ुरआन व हदीस के विपरीत हो ,सिर्फ और सिर्फ क़ुरआन और सहीह अहादीस को ही लाज़िम पकड़ो। और यही इमामो का सही मजहब था की अगर सहीह अहादीस मिल जाये तो हमारी बात को या राय को दिवार पर दे मारो क्यूंकि हमारा मजहब सिर्फ और सिर्फ क़ुरआन व सहीह अहादीस ही है। और सहीह अहादीस को ही अमल में ले।
और ये इसलिए की उनके नाम से व प्यारे नबी के नाम से लोगो के मध्य झूट ना फैलाया जाये क्यूंकि आम जनता नबी या इमाम के नाम से बोले गए झूट को भी हदीस तस्लीम करने अपनी सर आँखों पर रखने को तैयार हो जाती है।
प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है कि
"आदमी के झूठा होने के लिए यही काफी है कि वह जो सुने उसे (बिना तहक़ीक़) आगे बयान कर दे। "
( मुस्लिम, हदीस न. 5, मुक़दमा, अबु दाऊद 4992, इब्ने अबी शैबा 8/595, इब्ने हिब्बान 30, हाकिम 1/381)
ईमाम इब्ने तैमिया र. अ. फरमाते है :
"किसी ईमाम ने भी यह नहीं कहा कि जईफ हदीस से कोई अमल भी वाज़िब या मुस्तहब करार दिया जा सकता है। जो कोई यह कहता है इज्मा का मुखालिफ है। "
(किताबुल वसीला 179)
उम्मीद है आपने इसे बड़ी गौर-ओ-फ़िक्र से पूरा पढ़ा हो और आप समझ में आया हो।
और ऐसी चार हदीसे जो उलेमा बयान करते है उनमे पहली अत्यंत जईफ दूसरी और तीसरी मौजूअ (जाली) और चौथी बातिल (असत्य) है।
अगर अल्लाह अपनी रहमत से लोगो के बीच मतभेद को ख़त्म न करता तो हर मतभेद रहमत कैसे हो सकता
है !
अल्लाह ताला तो क़ुरआन करीम में इरशाद फरमा रहा है कि :
"तुम सब अल्लाह तआला की रस्सी को मजबूती से पकड़ लो और मतभेद मत करो और अल्लाह के इस उपकार को याद करो कि तुम एक दूसरे के दुश्मन थे अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में मुहब्बत पैदा कर दी और तुम भाई-भाई बन गए। "
2 (इतने कट्टर मतभेद)
मुस्लिमो का सामान्य द्रष्टिकोण यह है कि चारो फ़िक़्ही मजहब हर दोष से मुक्त है और हर मुसलमान पर उनमे से किसी एक की तक़लीद वाज़िब है किसी व्यक्ति को भी अपना मजहब (मसलक) तब्दील नहीं करना चाहिए न दूसरे मसलक से फतवा लेना चाहिए।
3 जो व्यक्ति फ़िक़्ही मजाहिब के गलती व भूल से पाक होने का अक़ीदा नहीं रखता या इन मस्लको की ताकीद नहीं करता उसे आम तौर पर (और गलत तौर पर) बिदती करार दिया जाता है या फिर वहाबी या अहले हदीस (गैर मुक़ल्लिद) का नाम दिया जाता है।
4 सहाबा किराम या इमामो का जो मतभेद था वह हदीसे नबवी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सही जईफ होने के साथ-साथ ख़त्म हो जाता था , लेकिन यह आगे के दौर में या अब्बासिया दौर में तनाव का रूप लेने लगा कुछ स्वतंत्र विचार वालो ने तब्दीली लाना चाही जिसमे ईमाम इब्ने तैमिया र. अ. और दीगर उलेमा है।
अंतिम समय में काबा में 4 मुसल्ले होते थे फिर शेख मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने काबा शरीफ में से मतभेद मिटाकर एक मुसल्ला क़ायम किया और उम्मते मुस्लिमा एक साथ नमाज़ पढ़ने लगी। और अहलुर्राय की जगह अस्हाबुल हदीस की सोच क़ायम की।
क़ुरआन व हदीस को तर्क करके उस वक़्त की जनता इमामो की तक़लीद करने लग गए। जबकि चारो इमामो (अबु हनीफा,शाफ़ई,मालिकी,हम्बली) का यही मजहब था कि हमसे भी भूल-चूक या गलती हो सकती है आप हमारी बातो को हमारी राय को एक तरफ रख दे अगर वो क़ुरआन व हदीस के विपरीत हो ,सिर्फ और सिर्फ क़ुरआन और सहीह अहादीस को ही लाज़िम पकड़ो। और यही इमामो का सही मजहब था की अगर सहीह अहादीस मिल जाये तो हमारी बात को या राय को दिवार पर दे मारो क्यूंकि हमारा मजहब सिर्फ और सिर्फ क़ुरआन व सहीह अहादीस ही है। और सहीह अहादीस को ही अमल में ले।
और ये इसलिए की उनके नाम से व प्यारे नबी के नाम से लोगो के मध्य झूट ना फैलाया जाये क्यूंकि आम जनता नबी या इमाम के नाम से बोले गए झूट को भी हदीस तस्लीम करने अपनी सर आँखों पर रखने को तैयार हो जाती है।
प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है कि
"आदमी के झूठा होने के लिए यही काफी है कि वह जो सुने उसे (बिना तहक़ीक़) आगे बयान कर दे। "
( मुस्लिम, हदीस न. 5, मुक़दमा, अबु दाऊद 4992, इब्ने अबी शैबा 8/595, इब्ने हिब्बान 30, हाकिम 1/381)
ईमाम इब्ने तैमिया र. अ. फरमाते है :
"किसी ईमाम ने भी यह नहीं कहा कि जईफ हदीस से कोई अमल भी वाज़िब या मुस्तहब करार दिया जा सकता है। जो कोई यह कहता है इज्मा का मुखालिफ है। "
(किताबुल वसीला 179)
उम्मीद है आपने इसे बड़ी गौर-ओ-फ़िक्र से पूरा पढ़ा हो और आप समझ में आया हो।
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